फोड़ो AI पर पटाखाः बारूद पर बैन, बेवकूफी पर छूट, सिस्टम की ग्रीन दीवाली!
आज का सिस्टम आम लोगों की खुशियों पर नियमों और प्रतिबंधों का ताला लगा रहा है। दीवाली जैसे उल्लास के त्योहार को भी अब अनुमति, पर्यावरण और पॉल्यूशन के नाम पर सीमित कर दिया गया है। पटाखे बेचने वाले बेरोजगार हैं, त्योहार मनाने वाले अपराधी जैसे बन गए हैं, और सब कुछ कानूनन खुश होने तक सिमट गया है। अब तो असली पटाखे नहीं, AI पर वर्चुअल पटाखे फोड़ो। यही है नए ज़माने की सिस्टम-प्रूफ दीवाली।
बेटा, अब पटाखे भी AI से लेना पड़ेगा। हां हां, वही- आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस!
क्यों बाबा?
बाबा-क्योंकि अब असली बारूद से नहीं, भावना से भी किसी का दिल जल जाता है।
पहले जब तुम्हारे बाप के ज़माने में इनकम कम थी, तब पटाखे महंगे लगते थे। अब थोड़ा पैसा आया, तो सबकी आंख में खटकने लगा! कहते हैं- ग्रीन करो बेटा, ग्रीन! अरे भाई, पहले जेब में हरियाली तो आने दो, फिर पटाखा भी ग्रीन ही फोड़ेंगे।
अब तो हाल ये है कि हर सामाजिक संस्था, जो पूरे साल कार्बन, प्लास्टिक, और प्रदूषण की नदियां बहाती है, वो दीवाली की रात अचानक पर्यावरण की मदर टेरेसा बन जाती हैं! साल भर ट्रक और फैक्ट्रियां चलाओ और खूब डीज़ल जला लो, बस एक दिन अगर सनातनी ने अनार फोड़ा तो धरती मां रो पड़ी!
मीडिया वाले भी मानो फुलझड़ी की तरह चमक उठते हैं- बच्चे डर रहे हैं, कुत्ते भाग रहे हैं, और दमा के मरीज खांस रहे हैं! अरे भाई, साल में एक दिन की खुशी भी अब ‘ट्रेंडिंग अपराध’ बन गई है क्या?
बाबा साहेब कहते थे- शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो। पर आज की नसीहत है- शांत रहो, साइलेंसर लगाओ, और एंटी-स्मॉग मास्क पहन लो।
बेटा, अब सरकार और प्रशासन भी फुल एनर्जी में है- पटाखा बेचने वाला दुकानदार मानो आतंकवादी हो गया, जिसकी रोज़ी-रोटी पूरे साल इसी मौसम पर टिकी थी, अब वो दुकान के बाहर पोस्टर चिपका रहा है- लाइसेंस रद्द, पर मन्नत बाकी है।
बेटा तू सोच- तेरी बहन की ससुराल वाले, जो पहले हमें कंजूस ससुराल कहते थे, अब क्या कहेंगे? पटाखा फड़ ही नहीं लगी, तो शान दिखाएं कैसे? अब तो बेटे, लाइटिंग की झालर ही स्टेटस सिंबल है।
विधायक जी के क्षेत्र में दीपोत्सव है, लेकिन पटाखा व्यापारियों के मन में अंधकारोत्सव! प्रशासन के डर से न फड़ खुली, न बिक्री हुई और मीडिया वाले माइक लेकर पूछते हैं- भाई साहब, उत्सव कैसा लग रहा? अरे क्या बताएं, भाई- “फुलझड़ी बुझी, दिल बुझा, पर हेडलाइन जल रही है!
अब डर यही है कि ये रोक-टोक कहीं पटाखा व्यापार को अवैध धंधे की तरफ़ न धकेल दे। जो मजदूर साल भर बारूद से खेलकर रोटी कमाता था, वो अब भूख से लड़ रहा है। कानून और नीति में फर्क बस इतना रह गया कि एक पटाखा कानूनी है, दूसरा सरकारी नहीं!
तो बेटा, इस बार दीवाली पर फोड़ो पटाखा- मगर AI पर! वो न धुआं देगा, न धमाका। बस स्क्रीन पर चमकेगा- हैप्पी वर्चुअल दिवाली!
कहेंगे- देखो, प्रगति कर ली हमने! मगर कहीं भीतर से एक आवाज़ जरूर आएगी कि कहां गई वो असली दीवाली की खुशबू, वो बारूद की महक में घुली अपनापन की गर्मी?
चलो बेटा, तुम AI पटाखे फोड़ो। हम तो दिल से यही कहेंगे- बचपन की दीवाली लौटाओ, जहां खुशी असली थी और पटाखे भी!
-राजीव गुप्ता ‘जनस्नेही की कलम से’
लोक स्वर, आगरा।




