चार दिनों की चांदनी, फिर घोर अंधेरी रात! कौन सुने यमुना की करुण पुकार?
देवोत्थान एकादशी पर जब श्रद्धालुजन यमुना पूजन को घाटों पर उमड़ेंगे, उनको मायूसी और घोर निराशा से दो चार होना पड़ेगा। वो लीलाधर श्रीकृष्ण की पटरानी, यमुना की पवित्र धारा, जो कभी मुगलों की शीतलता थी, शायरों का आईना, आज सड़ांध भरे झाग और काले ज़हर में डूबकर तिल-तिल मर रही है। छठ के चार दिन बैराज से पानी छूटा, घाट चमके, भक्त नहाए, तस्वीरें वायरल हुईं। फिर गेट बंद, बहाव ठप्प! नौ क्यूमेक्स से कम, ऑक्सीजन शून्य, मछलियों की लाशें। आगरा की रगों में अब केमिकल टैंक बहता है। ताज की छाया में मृतप्राय यमुना आख़िरी सांसें गिन रही—इंसानी लापरवाही की बलि चढ़कर!
-बृज खंडेलवाल-
बाबर के आराम बाग़ से लेकर शाहजहाँ के ताजमहल तक बहती यमुना — आगरा की रगों में दौड़ती ज़िंदगी — अब सड़ांध, झाग और ज़हर का दूसरा नाम बन चुकी है। कभी जिस धारा में पवित्रता बहती थी, वहाँ अब बदबूदार हवा और रासायनिक फेन उड़ता है। ये वही दरिया है, जिसकी शीतल लहरों में मुगल बादशाहों ने राहत पाई, जिसे शायरों ने “पाक़ीज़गी का आईना” कहा — और आज वही यमुना, इंसानी लापरवाही की शिकार होकर तिल-तिल मर रही है।
हर साल यही खेल दोहराया जाता है — चार दिन की चांदनी, फिर अंधेरी रात!
छठ जैसे पावन पर्व के ठीक पहले हरियाणा सरकार हथनीकुंड बैराज से कुछ दिन के लिए पानी छोड़ देती है, ताकि दिल्ली के घाट कैमरों में चमकते दिखें। इस बार भी 25 से 28 अक्टूबर के बीच करीब 6,823 क्यूसेक पानी छोड़ा गया। घाटों पर भक्त उमड़े, झाग कुछ देर के लिए गायब हुए, और तस्वीरें सोशल मीडिया पर “पवित्र यमुना” के नाम से वायरल हो गईं।
मगर 28 अक्टूबर की शाम तक जैसे ही छठ खत्म हुआ — बैराज के गेट फिर बंद। बहाव घटकर सिर्फ 9.97 क्यूमेक्स रह गया, जो पर्यावरणीय न्यूनतम प्रवाह (10 क्यूमेक्स) से भी कम है। बस चार दिन का नाटक और फिर वही सड़ांध, वही काला ज़हर।
अब जो थोड़ी बहुत यमुना ओखला बैराज से आगरा तक पहुँचती है, वह असल में औद्योगिक कचरे, सीवर, और प्लास्टिक का घोल है। फरीदाबाद, बल्लभगढ़, मथुरा और वृंदावन की नालियाँ उसमें घुल-मिल गई हैं। “अब इसे पानी कहना भी मज़ाक है,” कहते हैं पर्यावरण विशेषज्ञ, “ये दरिया नहीं, एक बहता हुआ केमिकल टैंक है।”
जैसे-जैसे ठंड बढ़ती है, पानी में ऑक्सीजन घटती है और मछलियाँ मरने लगती हैं। जलीय जीवन लगभग ख़त्म हो चुका है। पर्यावरणविद इसे ‘त्योहारनुमा सफाई’ बताते हैं — बस फ़ोटो खिंचवाने की रस्म। सरकारें यमुना को ‘मौसमी दरिया’ बना चुकी हैं — पूजा के वक्त खुली, बाकी वक्त बंद। लेकिन नदी का हक़ है कि वो साल भर बहे, सिर्फ पर्वों पर नहीं।
प्रसिद्ध पर्यावरणविद डॉ. देवाशीश भट्टाचार्य कहते हैं, “ताजमहल को बचाने की चिंता सबको है, मगर जिसने ताज को आईना दिया — वो यमुना — उसकी मौत पर कोई आँसू नहीं बहाता।”
केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने 2014 में वादा किया था कि यमुना पर स्ट्रीमर चलेंगे। आज 2025 है, वादा हवा में, और यमुना कब्र में। नमामि गंगे और नमामि यमुना पर अरबों रुपये खर्च हुए, लेकिन हकीकत यह है कि यमुना ताज की छाया में दम तोड़ रही है — ख़ामोशी से, लाचारी से।
राजनीति ने भी इसे मारा है। हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश — तीनों जगह एक ही पार्टी की सरकारें हैं, लेकिन तालमेल शून्य है। विपक्ष बस नारे लगाता है, धरना देता है, मगर असली काम कोई नहीं करता। नदी की लाश पर सियासी मेले लगते हैं — घोषणाओं की गूंज है, पर बहाव नहीं।
विशेषज्ञों का कहना है कि यमुना को बचाने के लिए निरंतर प्रवाह अनिवार्य है। रिवर कनेक्ट अभियान के कार्यकर्ताओं की मांग है कि हरियाणा और दिल्ली को सालभर पर्याप्त साफ़ पानी छोड़ना चाहिए, नालों और सीवर का untreated पानी रोकना चाहिए, और नदी की तलहटी से कम से कम एक मीटर गाद निकालनी चाहिए ताकि भूजल रिचार्ज हो सके।
इस बीच, सुप्रीम कोर्ट के आदेश धूल खा रहे हैं। डेयरियाँ, धोबी और ट्रक मालिक अब भी किनारों पर कचरा और गंदगी फैला रहे हैं। “रिवर पुलिस कहाँ है?” सवाल करती हैं पर्यावरण कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर — “लोग खुले में अब भी नदी किनारे शौच कर रहे हैं। कानून तो बस काग़ज़ी है, ज़मीन पर ज़ीरो।”
आगरा की बात करें, तो यहाँ दशकों से योजनाएँ ठंडे बस्ते में हैं, कहते हैं एक्टिविस्ट चतुर्भुज तिवारी।यमुना बैराज स्कीम बीस साल से रुकी है, जबकि योगी सरकार का 350 करोड़ का रबर डैम प्रोजेक्ट अब तक शुरू नहीं हुआ। डॉ. हरेंद्र गुप्ता कहते हैं, “अगर वो डैम बन जाता, तो ताज, एतमाद्दौला और राम बाग़ के पीछे पानी जमा रहता — ताज की परछाई फिर से लहरों में दिखती, और शहर का पर्यावरण सुधरता।”
आज की यमुना में वो चमक नहीं, वो ताजगी नहीं। हवा में कचरे की बदबू है, पानी में झाग है, और किनारों पर लाशें और प्लास्टिक तैर रहे हैं। कृष्ण की लीला भूमि अब कराह रही है।
ताजमहल की गोद में, एक मृतप्राय दरिया अपनी आख़िरी साँसें गिन रही है — किसी के सुनने, किसी के जागने का इंतज़ार करती हुई। सरकारें बदलती हैं, नारे बदलते हैं, पर यमुना की हालत वही रहती है — बदतर से बदतर।
अगर वक़्त रहते ईमानदारी से कदम नहीं उठाया गया, तो वो दिन दूर नहीं जब भारत की ये पवित्र नदियाँ केवल इतिहास की किताबों में बचेंगी — और हमारे शहरों के बीच बस नालियाँ बहेंगी। यमुना अब भी पुकार रही है —मुझे बहने दो, मुझे जीने दो।




