ऑपरेशन सिंदूर के बाद की सियासत: भाजपा के आक्रामक तेवरों के बीच विपक्ष की बेचैनी क्यों?

ऑपरेशन सिंदूर के रूप में सैन्य उपलब्धि की राजनीतिक व्याख्या अब देश की सियासी दिशा तय कर सकती है। भाजपा इसे जनभावनाओं से जोड़कर राजनीतिक पूंजी में तब्दील करने की कोशिश में है, वहीं विपक्ष किंतु-परंतु में उलझा हुआ है। अब आने वाले समय में यही तय होगा कि ऑपरेशन सिंदूर, चुनावी रण में कितना प्रभावशाली हथियार बनता है।

May 17, 2025 - 20:03
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ऑपरेशन सिंदूर के बाद की सियासत: भाजपा के आक्रामक तेवरों के बीच विपक्ष की बेचैनी क्यों?

-एसपी सिंह-

भारत द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ की गई सैन्य कार्रवाई, ऑपरेशन सिंदूर  ने देश में एक बार फिर से सुरक्षा और राष्ट्रवाद के सवाल को केंद्र में ला दिया है। इस ऑपरेशन के बाद जैसे ही सरकार ने इसकी जानकारी सार्वजनिक की, राजनीतिक हलकों में हलचल मच गई।
जहां भाजपा ने इस सैन्य सफलता को जनभावनाओं से जोड़कर ‘तिरंगा यात्राओं’ की शुरुआत कर दी है, वहीं विपक्ष की प्रतिक्रियाओं में साफ झलक रहा है कि वह इस मुद्दे को लेकर असहज और दुविधा में है।

भाजपा की रणनीति: राष्ट्रवाद को जमीनी अभियान में बदलना

भाजपा ने जिस तेज़ी से तिरंगा यात्राओं का ऐलान किया और देश की रक्षा में निर्णायक नेतृत्व को सामने रखा, इसमें उसकी रणनीति स्पष्ट होती है।
पार्टी इसे सिर्फ एक सैन्य सफलता के रूप में नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मजबूत इच्छाशक्ति का प्रमाण मानकर प्रचारित कर रही है। इस रणनीति का मकसद जनता के भीतर भावनात्मक जुड़ाव पैदा करना है।

विपक्ष की किंतु-परंतु की राजनीतिक भाषा

विपक्षी दल जैसे कांग्रेस और समाजवादी पार्टी एक अजीब असमंजस की स्थिति में दिखाई दे रहे हैं। उनके बयान कुछ इस प्रकार के हैं कि हम सेना के साथ हैं, लेकिन..., या सरकार को इसका राजनीतिक फायदा नहीं उठाना चाहिए। ऐसे वक्तव्य न तो सीधे समर्थन में हैं, न विरोध में। विपक्ष सेना के शौर्य को स्वीकार तो करता है, लेकिन उसे भाजपा की चुनावी रणनीति से जोड़ा जाना कतई स्वीकार नहीं। विपक्ष की यह दुविधा बताती है कि वह भाजपा के राष्ट्रवाद वाले नैरेटिव से बचने की कोशिश कर रहा है, लेकिन पूरी तरह खुद को अलग भी नहीं कर पा रहा।

कांग्रेसी सवाल: सीजफायर की घोषणा अमेरिका से क्यों?

कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सवाल किया कि जब ऑपरेशन भारत का था  तो सीजफायर का ऐलान अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा क्यों किया गया? यह सवाल दरअसल उस असहजता का प्रतीक है, जिसके ज़रिए कांग्रेस सरकार को अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपारदर्शिता और कूटनीतिक कमजोरी के आरोपों में घेरना चाहती है, लेकिन सीधे सैन्य कार्रवाई पर सवाल नहीं उठा पा रही।

सपा अध्यक्ष की तंजभरी टिप्पणी

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा, जीत का जश्न मनाया जाता है, सीजफायर का नहीं। यह बयान सीधा हमला नहीं, बल्कि सरकार की जश्न की राजनीति पर व्यंग्य है। यह दिखाता है कि विपक्ष इस मुद्दे पर राजनीतिक रूप से सतर्क है। वह सेना की कार्रवाई के तो साथ है, लेकिन भाजपा द्वारा इसे पीएम मोदी का निर्णायक कदम बताने को लेकर बेचैन जरूर है।

राजनीतिक संदेश क्या है?

इन दोनों दलों के बयानों में एक साझा बात है। भाजपा को इसका राजनीतिक लाभ मिलने की संभावना को लेकर चिंता। कांग्रेस और सपा जैसे दल यह समझते हैं कि राष्ट्रवाद, सैन्य पराक्रम और पाकिस्तान-विरोधी भावना का उपयोग भाजपा अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए कर सकती है, जैसा वह पहले भी कर चुकी है। परंतु इन दलों के पास इस विमर्श को काटने का न तो कोई स्पष्ट नैरेटिव है, न कोई मजबूत वैकल्पिक रणनीति। यही कारण है कि उनकी प्रतिक्रिया किंतु-परंतु तक सीमित है।

अन्य क्षेत्रीय दलों की चुप्पी: अवसरवाद या रणनीतिक मौन?

दिल्ली की आम आदमी पार्टी, बंगाल की तृणमूल कांग्रेस और दक्षिण भारत के कई क्षेत्रीय दलों ने या तो इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है या बेहद सतर्क प्रतिक्रिया दी है। उनका मकसद शायद यह है कि वे न भाजपा के राष्ट्रवाद की गूंज में शामिल होना चाहते हैं, न ही खुद को राष्ट्र विरोधी ठहराए जाने का खतरा उठाना चाहते हैं।

क्या सेना की सफलता, सरकार की जीत में बदलेगी?

यह सवाल अब सबसे अहम है कि क्या जनता ऑपरेशन सिंदूर को सेना का पराक्रम मानेगी या मोदी सरकार की नीति की सफलता? यदि यह नैरेटिव मजबूत होता है कि यह कार्रवाई सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति से संभव हुआ तो इसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा, ठीक वैसे ही जैसे 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 की बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद मिला था।

चुनावी समीकरणों पर संभावित असर

उत्तर भारत में राष्ट्रवाद और सुरक्षा जैसे मुद्दे भाजपा के पारंपरिक आधार को और मजबूत कर सकते हैं। शहरी मध्यवर्ग और युवा मतदाता, जो सरकार की निर्णय लेने की क्षमता को प्राथमिकता देते हैं, उनके बीच भाजपा को नया समर्थन मिल सकता है। विपक्ष की अस्पष्ट प्रतिक्रिया, उसकी स्थिति को कमजोर कर सकती है, खासकर जब जनता एक स्पष्ट और आत्मविश्वासी नेतृत्व की तलाश में हो।

SP_Singh AURGURU Editor