अमेरिका से संबंध: सावधानी और आत्मनिर्भरता की जरूरत
अमेरिका का व्यवहार भारत के प्रति स्थायी मित्रवत नहीं बल्कि स्वार्थपरक और अस्थिर रहा है। ऐतिहासिक विश्वासघातों, पाकिस्तान को समर्थन, नस्लवादी राजनीति और आर्थिक दबावों के पुराने मामलों को देखें तो भारत को अमेरिका पर अंधा विश्वास नहीं करना चाहिए। इसके बजाय, आत्मनिर्भरता, सांस्कृतिक अस्मिता और दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों की रक्षा पर बल देना चाहिए।

हाल ही में सरकारी विद्वानों, नेताओं और एक्सपर्ट्स ने बेबाकी से पश्चिमी दुनिया की सोच का खुलासा किया है। उनका कहना है कि 'गोरे लोगों का दिल' आज भी पाकिस्तान के लिए धड़कता है, यह सिर्फ एक राजनयिक टिप्पणी नहीं, बल्कि भारत की विदेश नीति के लिए एक महत्वपूर्ण चेतावनी है।
आज की वैश्विक व्यवस्था में, जहां हर देश अपने हितों को सर्वोपरि रखता है, भारत को अमेरिका के साथ अपने संबंधों को लेकर अत्यधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है।
बदलते वैश्विक समीकरण और 'ट्रंप युग' का यथार्थ
आज का सच यह है कि अंतरराष्ट्रीय संबंध 'वन-टू-वन' रिश्तों पर आधारित हैं। 'ट्रंप युग' ने इस बात को और स्पष्ट कर दिया है कि भू-राजनीति में साझा मूल्यों, चाहे वह जम्हूरियत हो या मानवाधिकार की जगह परस्पर आर्थिक लेन-देन ने ले ली है। समाजवाद का सूर्य सोवियत संघ के विघटन के साथ ही अस्त हो गया था और अब हम एक खूंखार पूंजीवाद के दौर में जी रहे हैं।
ट्रंप के दोबारा सत्ता में आने की संभावनाओं के बीच यह उम्मीद की जा रही थी कि भारत-अमेरिकी संबंध और प्रगाढ़ होंगे, जिससे भारत को अनेकों लाभ मिलेंगे। सतही तौर पर कुछ नज़दीकियां दिखीं भी, जिन्होंने एक मजबूत साझेदारी का भ्रम पैदा किया, लेकिन जल्द ही यह खोखला ढकोसला साबित हुआ। जब हम ऐतिहासिक संदर्भों, भू-राजनीतिक हितों, और बार-बार सामने आए दोहरे मापदंडों को देखते हैं, तो यह साफ हो जाता है कि अमेरिका पर आंख मूँदकर भरोसा करना भारत के लिए खतरनाक हो सकता है।
ऐतिहासिक विश्वासघात: पाकिस्तान को अमेरिकी समर्थन
सबसे पहले हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका और ब्रिटेन ने दशकों तक पाकिस्तान में आतंकवाद को खुला समर्थन दिया है। पाकिस्तानी हुक्मरान खुद स्वीकार कर चुके हैं कि उनकी सरकारें कई दशकों से डर्टी वर्क करती रही हैं। यह कोई गुप्त बात नहीं है कि अफ़गान युद्ध के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान को एक रणनीतिक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया, जिससे भारत को अपार नुकसान उठाना पड़ा। पाकिस्तानी रक्षा मंत्री की हालिया स्वीकारोक्ति कि अमेरिका और ब्रिटेन ने 30 वर्षों तक पाकिस्तान में आतंकवाद को बढ़ावा दिया, भारत के खिलाफ एक छिपे युद्ध के समर्थन जैसा है।
इतिहास इस बात का भी गवाह है कि अमेरिका ने भारत के खिलाफ कई बार दुर्भावना दिखाई है। 1971 के बांग्लादेश युद्ध के समय, जब भारत मानवता के पक्ष में खड़ा था, तब अमेरिका ने अपना सातवां नौसेना बेड़ा भारत के विरुद्ध भेजा। क्या यह किसी मित्र देश का संकेत था? क्या यह भारत की संप्रभुता का सम्मान था? और आज भी, जब पाकिस्तान भारत के खिलाफ एफ-16 विमानों का उपयोग करता है, जो अमेरिका ने उसे यह वादा कर के दिए थे कि वे भारत के खिलाफ इस्तेमाल नहीं होंगे, तो अमेरिका की नीयत एक बार फिर संदिग्ध साबित होती है।
'अमेरिका फर्स्ट' की नस्लवादी सोच और आर्थिक दबाव
डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेता की राजनीति का आधार ही नस्लवाद और 'अमेरिका फर्स्ट' की संकीर्ण सोच है। उनकी प्रवासी नीति, मुस्लिम देशों के नागरिकों पर प्रतिबंध और भारतवंशियों के साथ अमानवीय व्यवहार, ये सब दिखाते हैं कि रंगभेद और नस्लीय श्रेष्ठता उनके दृष्टिकोण का हिस्सा हैं। जब भारतीय मूल के लोगों को अमेरिका में उनके धर्म और रंग के आधार पर अपमानित और प्रताड़ित किया जाता है, तब यह सवाल उठना स्वाभाविक है, क्या अमेरिका सचमुच भारत का मित्र है, या केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए समीप आता दिख रहा है?
अमेरिका का आर्थिक रवैया भी संदेहास्पद रहा है। भारत से अत्यधिक मूल्य पर एफ-35 जैसे हथियार खरीदने का दबाव बनाना, भारतीय रुपये की कीमत को कम करते हुए डॉलर को मजबूत बनाए रखना और पेटेंट कानूनों के ज़रिए भारतीय नवाचारों और पारंपरिक ज्ञान पर कब्जा करना, ये सब संकेत हैं कि अमेरिका केवल एक व्यापारिक लाभकारी साझेदार है, न कि आत्मीय मित्र।
आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा
भारत ने जब-जब आत्मनिर्भर बनने की ओर कदम बढ़ाया, पश्चिमी देशों ने शंका और विरोध ही किया। चाहे परमाणु नीति हो या डिजिटल डेटा सुरक्षा, अमेरिका ने हमेशा भारत की स्वतंत्र नीतियों को दबाने की कोशिश की है। क्वाड जैसे संगठनों में भी, जब भारत को पाकिस्तान द्वारा उकसाया गया, तब कोई एक भी पश्चिमी देश खुलकर भारत के पक्ष में नहीं आया।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि अमेरिका कभी भी भारत की सांस्कृतिक अस्मिता को नहीं समझ पाया है। उनका शिक्षा, रहन-सहन, जीवन शैली और मूल्य प्रणाली थोपने का प्रयास आज भी जारी है। हमें उनके सिस्टम, उनकी भाषाएं और उनके लाइफस्टाइल को श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति से बचना होगा। यह गोरों और रंग वालों की पुरानी मानसिकता अब भी जीवित है, बस नया रूप ले चुकी है।
अतः, समय आ गया है कि भारत अपनी विदेश नीति को फिर से परखे और आत्मनिर्भरता को ही अपनी सुरक्षा और सम्मान की ढाल बनाए। अमेरिका जैसे देशों से सावधानीपूर्वक संबंध बनाए रखें, लेकिन आंख मूंदकर विश्वास न करें। भारत को अब अपने आत्म-सम्मान, सांस्कृतिक मूल्यों, और दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखते हुए, विदेशी मित्रताओं की कसौटी पर कड़ा मूल्यांकन करना होगा। क्या हम इस बदलती दुनिया में अपनी पहचान और स्वायत्तता को बनाए रखने के लिए तैयार हैं?