सधे कदम, बड़ा मकसद: दलित राजनीति की विरासत पर चंद्रशेखर की दस्तक

चंद्रशेखर आज़ाद दलित राजनीति में नेतृत्व की नई धुरी बनने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। वे मायावती की लोकप्रियता और विरासत को सीधी चुनौती देने के बजाय सम्मानजनक दूरी बनाए रखते हुए दलित समाज में अपनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं। आगरा में दिए हालिया बयान में उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से मायावती की निष्क्रियता पर सवाल उठाते हुए समाज को "मरने के लिए नहीं छोड़ने" की बात कही। दूसरी ओर, मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को सामने लाकर संभावित नेतृत्व संघर्ष को 'युवा बनाम युवा' की शक्ल दे दी है। यह दलित राजनीति में बदलाव और विरासत की जंग की शुरुआती पटकथा है।

May 27, 2025 - 13:23
May 27, 2025 - 13:27
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सधे कदम, बड़ा मकसद: दलित राजनीति की विरासत पर चंद्रशेखर की दस्तक

-एसपी सिंह-

उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नई पटकथा लिखी जा रही है, जहां सवाल सिर्फ सत्ता का नहीं, बल्कि उस सामाजिक नेतृत्व का है जिसने दशकों से दलित चेतना की धुरी को आकार दिया है। इस पटकथा के दो मुख्य किरदार हैं- बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती, और युवा दलित नेता, आजाद समाज पार्टी के संस्थापक चंद्रशेखर आज़ाद।

चंद्रशेखर अब कोई सामान्य नेता नहीं हैं। वे भीम आर्मी के संस्थापक रहे हैं, जेल की सख्त सलाखों से निकलकर सामाजिक न्याय की बुलंद आवाज़ बन चुके हैं। अपने बूते नगीना से सांसद चुने गये हैं और आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष हैं। वे शायद जानते हैं कि दलित समाज के भीतर जिस भावनात्मक जुड़ाव ने मायावती को ‘बहनजी’ और उनके शब्दों को ‘आदेश’ का दर्जा दिलाया, वह जुड़ाव एक झटके में खत्म नहीं होगा। इसलिए चंद्रशेखर जल्दबाज़ी में नहीं हैं। वे जमीन पर खामोशी से अपने सियासी बीज बो रहे हैं। एक विचार, एक आंदोलन, एक नई उम्मीद के रूप में।

हाल ही में आगरा में आयोजित अपनी पार्टी के प्रबुद्धजन सम्मेलन में उन्होंने कुछ ऐसा ही संकेत दिया। मंच से मायावती को ‘समाज की सम्माननीय और बड़ी नेता’ कहकर वे दलित समाज के उस तबके को साधने की कोशिश करते हैं, जो अभी भी मायावती को ‘दलित मसीहा’ मानता है। लेकिन इसी सम्मान के बीच उन्होंने एक तीर छोड़ दिया- लेकिन हम समाज को मरने के लिए नहीं छोड़ सकते। यह वाक्य सुनने में संयमित था, लेकिन भीतर से गहराई लिए था। यह आरोप नहीं, बल्कि अपील थी। एक ऐसा संदेश कि अब समय आ गया है कि दलित समाज अपना नेतृत्व बदले, सोच बदले और आंदोलन फिर से जिंदा हो।

चंद्रशेखर की यह राजनीतिक चतुराई उन्हें मायावती के समानांतर खड़ा करती है, न कि सीधे विरोध में। शायद यही कारण है कि उन्होंने मायावती को कभी कटु शब्दों से नहीं नवाज़ा। हमेशा ‘बुआ’ कहकर या फिर सम्माननीय नेता के रूप में संबोधित किया। यह चंद्रशेखर के सधे हुए कदमों को रणनीति को दर्शाती है जो उन्हें अभी भी दलितों में बड़ा जनाधार रखने वाली मायावती पर सीधे प्रहार करने से रोकती है।

उधर मायावती यह बात बखूबी समझ चुकी हैं कि अगर चंद्रशेखर को समय और जमीन मिल गई, तो वह वही चेहरा बन सकते हैं, जिसे कभी वे खुद बनकर उभरी थीं। इसलिए उन्होंने वक्त रहते अपने भतीजे आकाश आनंद को आगे लाकर ‘यूथ बनाम यूथ’ का दांव चल दिया है।

आकाश आनंद का राजनीति में आना कोई सामान्य उत्तराधिकारी योजना नहीं, बल्कि चंद्रशेखर की युवा लोकप्रियता को काउंटर करने की रणनीति है। एक ओर चंद्रशेखर की सड़कों पर लड़ने वाली छवि है तो दूसरी ओर संगठन के भीतर से तैयार हुआ नेतृत्व, जो परिवारवाद के तमगे के बावजूद पार्टी के भीतर के संतुलन और दलित राजनीति की विरासत को संभाले हुए है।

यह संघर्ष अब धीरे-धीरे खुलते दरवाजे जैसा है। अभी पूरी तरह आमने-सामने नहीं, लेकिन भीतर की हलचल स्पष्ट है। मायावती की राजनीतिक सक्रियता सीमित हो चुकी है, जबकि चंद्रशेखर हर मौके को मंच में बदलने की तैयारी में हैं। उनके पास युवाओं का समर्थन, सोशल मीडिया की पैठ  और एक नई राजनीतिक भाषा है, जो न केवल आक्रोश को आवाज़ देती है, बल्कि बदलाव की उम्मीद भी जगाती है।

आने वाले समय में यह तय होना है कि दलित राजनीति सिर्फ एक दल या एक नेता तक सीमित रहेगी या फिर चंद्रशेखर जैसा कोई युवा उभरकर सामने आएगा। दलित राजनीति का यह मैदान अब आजाद समाज पार्टी की ओर से बसपा के लिए पेश की जा रही चुनौती से नई ऊर्जा और नई सोच के लिए खुला अखाड़ा बन चुका है। सवाल यही है, क्या चंद्रशेखर वह चेहरा बन पाएंगे, जो मायावती की सियासी छाया से बाहर निकलकर अपनी पहचान बना सके? या फिर मायावती की विरासत उनके ही हाथों में लौटेगी, आकाश आनंद के रूप में?

यह मुकाबला सिर्फ दो नेताओं का नहीं, दो दृष्टिकोणों, दो रणनीतियों और दलित राजनीति के भविष्य का है।

SP_Singh AURGURU Editor