जब मौनी अमावस्या पर व्यवस्था चरमराई तब स्थानीय लोगों ने की दिल खोलकर मदद
महाकुंभ में श्रद्धालुओं के लिए पार्किंग वाली जगहों से या फिर रेलवे स्टेशन से लेकर संगम के बाहरी छोर तक शटल बसें चलाई जा रही हैं। मगर इस बार मौनी अमावस्या के स्नान के समय शहर में भारी भीड़ इकट्ठा हो गई थी, जिससे सभी सुविधाएं पटरी से उतरती हुई नजर आईं। शहर के बाहर बनाए गए पार्किंग स्थल गाड़ियों से भर गए। पूरे मेला क्षेत्र और शहर में हर जगह श्रद्धालु नजर आ रहे थे। इस भीड़ की वजह से महाकुंभ मेले में श्रद्धालुओं के लिए चलाई जा रही शटल बसें भी अपर्याप्त साबित हुईं। लोगों को कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ा।

दिनेश कुमार सिद्धार्थ
प्रयागराज। सबसे प्रमुख मौनी अमावस्या स्नान पर्व जो कि 29 जनवरी को था, के लिए भीड़, 26 जनवरी से ही जुटना शुरू हो गई थी। मौनी अमावस्या के स्नान पर्व तक यह भीड़ करोड़ों में पहुंच चुकी थी। शहर भर के होटल, गेस्ट हाउस, धर्मशाला, लाॅज बुक थे। दारागंज और कीडगंज के पंडों के यहां और अन्य मोहल्लों में रिश्तेदारों के यहां स्नानार्थी रुके हुए थे। सोशल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक चैनल, न्यूजपेपर आदि वजहों से महाकुंभ मेले का प्रचार भी खूब हुआ। इसलिए इस बार की भीड़ ने पिछले कई रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए।
श्रद्धालुओं के स्नान के बाद उन्हें सुरक्षित घर वापस पहुंचाना भी शासन-प्रशासन के लिए कठिन चुनौती साबित हुआ। स्पेशल ट्रेन चलाकर लोगों को प्रयागराज से विभिन्न दिशाओं में ट्रेन चलाई गई। रेलवे का कहना है कि उन्होंने तीन दिनों में एक हजार से अधिक ट्रेन चलाकर श्रद्धालुओं को प्रयागराज से विभिन्न शहरों में भेजा।
ऐसे में स्थानीय लोग भी परेशान-हैरान लोगों की मदद के लिए खुलकर सामने आए। जब प्रशासन ने महाकुंभ मेला क्षेत्र में अतिशय भीड़ को नियंत्रित करने के उद्देश्य से श्रद्धालुओं को मेला क्षेत्र से बाहर भेजा, तब हजारों लोग प्रयागराज की सड़कों पर भटकने लगे। ऐसे श्रद्धालुओं को जिन्हें नैनी जाकर जबलपुर जाने के लिए बस पकड़नी थी, उन्हें कानपुर की तरफ सुलेमसराय की ओर भेज दिया। जब उन्हें बहराइच जाने के लिए फाफामऊ जाना था, तब उन्हें चौफटका भेज दिया। लोग परिवार और सामान के साथ यहां-वहां भटकते रहे। किसी को भी नैनी पुल की तरफ या झूसी पुल की तरफ या रेलवे स्टेशन की तरफ नहीं जाने दिया जा रहा था। क्योंकि वहां भी बहुत भीड़ हो गई थी और भगदड़ मच जाने का खतरा पैदा हो गया था। ऐसे में लोगों के सामने संकट पैदा हो गया। खुले आकाश के नीचे सड़क पर बैठकर लोगों ने रात गुजारी।
ऐसे कठिन वक्त में यहां के निवासियों ने अपने कोमल हृदय का परिचय दिया। स्थानीय निवासियों ने उनके लिए अपने घरों के दरवाजे खोल दिए। औरतों और बच्चों की सहूलियत के लिए उन्होंने अपने घरों में आने और आराम करने की सहूलियत दी। उन्होंने सोने के लिए बिस्तर दिया। उनके खाने पीने के लिए भोजन और पानी दिया। उनके खाने-पीने के लिए भंडारे चलाए गए। पानी की बोतलें बांटी गईं।
बाई के बाग में रहने वाले पीयूष जायसवाल कहते हैं, "उस दिन हमने लगतार 16 घंटे भंडारा किया। लोग आते गए और हम पूरी सब्जी बांटते गए। मगर..." उनकी आंखों में दया के भाव उमड़ पड़े। वे कहते हैं, "...मगर हम सबको खाना नहीं खिला सके। लोग भूख, प्यास से व्याकुल थे। बहुत लोग थे"।
इसी तरह झूसी में रहने वाले जितेन्द्र मौर्य ने लोगों की मदद की। श्रद्धालुओं को परेशान होते देखा तो उनका दिल भर आया। ऑटो वाले दुगुना-तिगुना किराया वसूल कर रहे थे। तब उन्होंने अपनी स्कूटी में पानी की बोतल और गुड़ -तिल के लड्डू लिए और एक-दो साथियों के साथ अपने-अपने दुपहिया वाहनों से घर से निकल पड़े। जो भी यात्री परेशान दिखता, उसे पानी पिलाते और फिर उसके गंतव्य तक, जहां उनकी बस या कार पार्क की गई थी, वहां तक छोड़ कर आते। वह फ्री सेवा कर रहे थे।
जितेंद्र बताते हैं, "लोग चलते-चलते थक गए थे। औरतों और बच्चों को बहुत दिक्कत हो रही थी। जब उनके छोड़कर आते, तब उनके चेहरे पर जो प्रसन्नता और संतोष के भाव होते थे, आशीर्वाद देते, उससे हमें बहुत संतुष्टि होती थी।"
कितने लोगों को आपने उस दिन अपनी स्कूटी से छोड़ा होगा, यह पूछने पर वह कहते हैं, "उस दिन अकेले मैंने 22 लोगों को अपनी स्कूटी से उनकी बताई जगह तक छोड़ा था"।
जितेन्द्र की तरह बहुत से लोगों ने पैदल चल रहे लोगों को अलग-अलग जगहों पर छोड़ा था। श्रद्धालुओं की अपार भीड़ थी, लोगों को बहुत कष्ट हुआ। मगर जितनी भी सहायता लोग कर सके, की; फिर चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। सभी ने अपने नेकदिली का परिचय दिया।